Monday, October 19, 2020
Thursday, August 27, 2020
Sunday, August 16, 2020
Thursday, August 6, 2020
Monday, July 27, 2020
Wednesday, July 15, 2020
'शिक्षा संस्कृति की भारतीय परंपरा, वर्तमान परिदृश्य और हमारा दायित्व' विषय पर श्रीयुत अतुल भाई कोठारी, राष्ट्रीय सचिव, शिक्षा सस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली का उद्बोधन . अध्यक्षता- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल . अवसर- बोधिसत्त्व बाबासाहेब ई ज्ञान श्रृंखला का पाचवां पुष्प .
'शिक्षा संस्कृति की भारतीय परंपरा, वर्तमान परिदृश्य और हमारा दायित्व' विषय पर श्रीयुत अतुल भाई कोठारी, राष्ट्रीय सचिव, शिक्षा सस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली का उद्बोधन . अध्यक्षता- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल . अवसर- बोधिसत्त्व बाबासाहेब ई ज्ञान श्रृंखला का पाचवां पुष्प .
Wednesday, July 8, 2020
Tuesday, July 7, 2020
Thursday, June 25, 2020
Friday, March 13, 2020
जन गण मन अधिनायक महात्मा
गाँधी से होकर गुजरता है हमारे समय का समाधान
·
प्रोफेसर (डॉ.) अनिल कुमार राय
मोहनदास करमचंद
गाँधी पिछली सदी की महानतम उपलब्धियों में से एक हैं। मोहन से महात्मा तक की यात्रा
में हमें गाँधी जी के व्यक्तित्त्व के अनेक आयाम, कई कोण नज़र आतें हैं जिन्हें न
जाने कितने दृष्टिकोणों से देखा-समझा जा सकता है। गाँधी जी असाधारण प्रतिभा संपन्न
मानव थे जिन्हें समय और समाज ने महामानव बनाया। अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर
लेना, अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना, पहले प्रयोग करके फिर उसे सैद्धांतिक व वैचारिक
मान्यता देना गांधीजी के व्यक्तित्व की खुबिंयाँ रही हैं। आधुनिकता और परम्परा का
द्वन्द्व हो अथवा समाहार;
ईश्वर, आस्था, सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य के चुभते प्रश्न हों अथवा नतमस्तक जवाब,
गांधीजी से टकराए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। गांधी हर समय के लिए, हमारे समय के लिए
भी एक अनिवार्य सत्य हैं।
गांधीजी
अपने समय में एक चुनौती के रूप में रहे और बाद में वे उससे भी बड़ी चुनौती बन गए। अपने
जीवन में वे बड़े व्यक्तित्त्व के धनी मानव थे परन्तु मृत्यु के बाद और भी बड़े आदमी
बन गए- महामानव। ऐसे महामानव जिसमें हर समय की समस्याओं का समाधान समाहित है,
प्रत्येक व्यक्ति और समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं और कुंठा से मुक्त होने के सूत्र
मौजूद हैं। दुर्भाग्य से गांधीजी के कथित अनुयायी- अंधभक्त उन्हें भगवान बनाने का
प्रयास करते रहे हैं। वे गांधीवाद के कवच में अपने को बंद करके सुरक्षित महसूस करते
हैं, उनकी मूर्ति को स्थापित करवा कर तथा उसकी छाँवतले बैठकर अपने को गाँधी का
उत्तराधिकारी घोषित करके सुविधाओं के आँचल में मुहँ छिपा लेते हैं। गांधीजी को प्रतीकों
से, पाखंडों से बाहर निकालकर अपने जीवन में, कर्म में- आचरण में उतारना होगा। कैसे होगा यह ? प्रश्न बड़ा है परन्तु
इसके बिना हमारा उद्धार संभव नहीं है। भ्रष्टाचार की जननी लिप्सा, लालच और स्व की
भावना से मुक्त होने के लिए, वैष्णव जन बनने के लिए गांधीजी की सादगी और सदाचार को
अपनाना ही होगा, बाहर और अंदर के आडंबर को त्यागना होगा, कथनी और करनी को एकाकर करना
होगा। गांधीजी ने विषम परिस्थितियों में, अभारतीय परिवेश में
अपने जीवन में, आचरण में, कर्म में जो कुछ कर दिखाया उन्हें हम भी अपने जीवन में
अपना सकते हैं, अपनाना ही होगा। गांधीजी अपने को आधुनिक कहते थे परन्तु
आधुनिकतावादी नहीं थे। गांधीजी जीवन पर्यंत प्रयोग करते रहे परन्तु प्रयोगवादी
नहीं बने | वे रूढ़ियों और सड़ी-गली परंपराओं को लगातार ललकारते रहे। धर्म-दर्शन और
लोक परंपरा को नए ढंग से परिभाषित करके उसे लोकोपयोगी और जीवन संगत बनाते रहे
गांधीजी।
महात्मा
गाँधी की जो छवि हमारे जनमानस में, नई पीढ़ी में उकेरने की सायास कोशिश की जा रही है उसके कई शेड्स हैं।
एक-लाचारी के प्रतीक के रूप में, मजबूरी के नाम के रूप में गाँधी तो दूसरा लड़कियों
और महिलाओं के साथ ब्रह्मचर्य का प्रयोग करते गाँधी। तमाम साम्राज्यवादी शक्तियां,
पूंजीवादी समाज और बाज़ारवादी बुद्धिजीवी गांधीजी के जीते भी और मृत्यु के बाद भी
लगातार उनके बारे में भ्रम फैलाने, उन्हें अंगभीर साबित करने के वैश्विक कुचक्र
में लगे रहे। आज भी बुद्धि-विलासिता की आड़ में ऐसे लोग सक्रिय हैं परन्तु गांधीजी
उससे परे हैं, आगे हैं। गांधीजी हमेशा अपने को जन-गण-मन आमजन से जोड़कर देखते थे,
उनमें सत्य को तलाशते थे और सत्य में ईश्वर को। ईश्वर ही सत्य है और सत्य ही ईश्वर, दोनों एक ही तथ्य हैं अथवा अलग-अलग?? इसे सोचने और
समझने कि जरूरत है | गणित के सामान्य नियम से दोनों एक हैं
परंतु गांधीजी की दृष्टि में दोनों अलग-अलग हैं। सत्य की महत्ता गांधीजी के लिए ईश्वर के बराबर थी परंतु
जरूरी नहीं कि ईश्वर सत्य के समतुल्य हो। गांधीजी के लिए सत्य सापेक्ष नहीं
निरपेक्ष था, सार्वभौमिक, सार्वकालिक
था। उनका सत्य अपने-अपने लिए नहीं वरन सबके लिए था। इसलिए गांधी दर्शन में, विचार में सत्य, आचरण और साधन की शुचिता सर्वाधिक
महत्व रखता है।
गांधीजी
अपनी सीमाओं और स्वाभाविक कमजोरियों को शक्ति और सामर्थ्य में परिवर्तित कर देने में
दक्ष थे। अपने विद्यार्थी जीवन में भाषण देने में संकोची मोहन आगे चलकर संभाषण कला
के शीर्ष, जीते जागते उदाहरण बनकर महात्मा गांधी
बन गए। उनका मौन भी संप्रेषण बन गया। उनका कर्म और व्यवहार सिद्धांत बन गया। उनका
नाम सत्य, अहिंसा, शांति और ब्रह्मचर्य
का प्रतीक बन गया। उनका जीवन ही संदेश बन गया।
गांधीजी
ने अपने जीवन में अपरिग्रह यानि असंग्रह व्रत का संदेश दिया जिसे आज का समाज मुँह
चिढ़ाता नज़र आ रहा है। आज हम संग्रह को जीवन में सर्वाधिक महत्व देने में व्यस्त
हैं। सबकुछ अपना हो जाय, अधिक
से अधिक अपने घर में आ जाय की नीति से हमारा आज का जीवन ग्रस्त है। आज गांधीजी को
हम रक्षाकवच के रूप में उपयोग कर रहे हैं | गांधीजी पर भाषण
देते हैं, उनकी मूर्ति पर फूल-माला चढ़ाते हैं, ड्राइंग रूम में चरखा सजाते हैं, गांधीजी पर
विचार-विमर्श में अपना सिर तुड़वाते हैं परंतु अपने जीवन से,
आचरण से गांधीजी को दूर ही रखते हैं | यदि ऐसा नहीं तो फिर
क्यों गली-गली में गांधी के नाम पर संस्थाओं के उगने के बावजूद भी, चौराहे-चौराहे पर गांधीजी की प्रतिमा सजने के बाद भी, बार-बार उनके पाठ और पुनर्पाठ के बाद भी भारत के एक भी गाँव में स्वराज
नहीं आ सका| भला हो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का जिन्होंने
आज़ाद भारत में पहली बार गांवों की तरफ वोट लेने से इतर नज़र उठाया है। गांवों को
गोद लेने के बहाने राजनेताओं, जनप्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों, संस्थानों और सरकारों को ललकारा है।
‘सबका साथ-सबका विकास का नारा देकर जनसहभागिता और आम-जन की
महत्ता व सत्ता का आदर किया है। गांधीजी के श्रम और सफाई को पहली बार सार्वजनिक
मान्यता मिली है। शुचिता और सादगी, हिन्द और हिन्दी का महत्व
बढ़ा है। हमारे समय की सर्वाधिक जटिल समस्याओं के समाधान और निदान का मार्ग महात्मा
गांधी से होकर ही गुजरता है। गांधी आज समूची दुनिया के सामने विकल्प के रूप में खड़े
हैं।
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